नकाबपोशों की दुनिया में
हर किसी से उम्मीद बेमानी है,
चल सके तो अकेला चल ले ए 'राही'
इस वक़्त तो यही जिंदगानी है ।
वक़्त के थपेड़ों ने नहीं बख्शा किसी को
अब तक के इतिहास की तो यही कहानी है,
अगर बचा कोई ... तो लुट गया ज़माने से
इस ज़मीं पर 'कम्बख्त' यही जिंदगानी है ।
उजेले-अँधेरे का खेल है ज़िन्दगी
सदा उजियारे की चाह यहाँ पुरानी है,
अपना क्यूँ न ले हर वक़्त अँधेरे को क्यूंकि
अँधेरे में और अँधेरा होना ही बेमानी है ।
अब तो होने लगी है घुटन भी उजेले से कि
लगता है कि बेहतर ज़िन्दगी 'अँधेरी गुमनामी' है,
ये तो आईना-ए-हकीकत है मुक़र्रर ज़िन्दगी का
नहीं तो शायद ... मेरे नज़रिये में ही कोई खामी है .... ।
-पुरू