खुले आसमां की छत्रछाया में
धरा पर चलता मुसाफिर,
करे कामना सुख की
हर कदम हर पथ पर ......
तो फिर औचित्य इस जीवन का क्या है ...?
निशा के सहचर, उजियारे में सोये,
कर्म एवं समय को बना पात्र उपहास का
अवचेतन बन जिए....,
तदुपरांत भी कोसते विधाता एवं प्रारब्ध को
वाह रे वाह! मनु तेरी अकर्मण्यता।
सुख-दुःख पहलू दो हैं जीवन के
तथ्य यह विदित है मनु को,
तिस पर भी खोजता वह
सुगम्य पथ जीवन का
बना देता अर्थहीन कर्मण्यता को,
क्यों भला....?
कर्मण्य मनु चुनता पथ कर्म का
बनता निर्माता स्वयं के प्रारब्ध का,
अकर्मण्य होता प्रतिकर्षित कर्म से
जोहता बाट समय बीतने का,
वाह रे वाह! मनु तेरी मानसिकता।
कर्मण्य अवं अकर्मण्य, करते सफ़र जीवन का
अंतर है तो सिर्फ मानसिकता का,
मानसिकता ही तो है जो बदलती है
मायने और तरीका जीवन जीने का।
-पुरु