Saturday 16 February 2013

अस्ताचल-उदयाचल



क्षितिज पर होता उदयाचल 
निशि के पश्चात् देता 
उल्लास, नव उर्जा- एक नयी शक्ति।
रजनीकालीन अंधकार का वृहत अंतराल 
बीत गया है।

वृहत अंतरालिक रात्रि के अंधकार 
को दूर करते हुए 
सोखते हुए उस कालिमा को 
फैलता हुआ उजाला देता एक नया आसमां 
देता समृध्दी, उजेला-सक्षमता एवं कार्य-शक्ति का 
पाकर उजेला यह आच्छादित 
करता आह्लादित उस निम्न वर्ग को 
देता पारावार खुशियाँ जीवन की 
लगता है मानो  अस्ताचल-उदयाचल
पहलू दो हैं जीवन के।

किसी अन्य निम्न वर्ग के जीवन में 
होने वाला उदयाचल 
आशाओं में बांध जाता है, जब उठती है 
धुंध कोहरे की, धक् लेती है इस प्रकाश को 
जो देगा उल्लास समृद्धि ,
करेगा आह्लादित और प्रवाहित करेगा 
नयी उर्जा- एक नयी शक्ति।

धुंध तो है उच्च वर्ग, करती है मनमानी 
उस  हथौड़े के समान कसती है,
बेचारी कील को, जो कसना ही नहीं चाहती 
अंधकारिता का यह बड़ा अंतराल 
होता जाता है बड़ा है जैसे 
कंगली में होता आटा गीला 
प्रकाश भी बेबस धुंध के पास 
नहीं पहुँच पाता किसी तरह धरा पर।

 
मध्याह्न उपरांत अंत में किसी तरह प्रकाश 
पहुंचता है धरती पर, 
क्षणिकता की यह विकटता
की समय देता है सूचना अस्ताचल की 
हाय! बेबसी लाचारी निम्न वर्ग की 
मानो क्षणिक समय के लिए 
दिया गया खिलाना बच्चे से छीन लिया गया 
और बच्चा रोता ही रह गया।

पुनः अन्धकार की वेला दग्ध करती है 
चूस लेती है सारा सार उस आधार का 
और बना देती है हाड़-निमित्त मात्र का ।
लगता है मानो अस्ताचल उदयाचल है ही नहीं ,
है तो सिर्फ और सिर्फ परिवेष्टित अंधकार है।

दृष्टांत दोनों हैं निम्न वर्ग के 
फिर भी अंतर कितना मध्य में ,
आज अमीर समृध्दशाली है 
और गरीब की झोली ही खाली है ।



-पुरु  

Sunday 10 February 2013

गुरु या सूर्य

निशारुपी अंधकार में सूर्य की आभा
करती उजेला इस धरा पर,
यह उजेला ही तो प्रेरक है 
कर्मठ मनु के लिए।

इसी तरह ज्ञान की आभा 
करती प्रेरित कर्मण्य-अकर्मण्य शिष्य को, 
बाध्यता नहीं है गुरु-मन में और न ही है वैमनस्य 
उसके लिए समभाव है कर्मण्य-अकर्मण्य।

सूर्य का प्रदीप्यमान होना कर्म है उसका, 
पर वह भी होजाता है बेबस जब 
होता है ग्रहण या ढक लेते हैं बादल बरसात में,
यही है कर्त्तव्यशून्यता सूर्य की।

गुरु-कर्म एक कर्त्तव्य है,
यही परिलक्षित होता है सामर्थ्य में 
कि नहीं है कोई बाध्यता परिस्थितियों की,
अतएव सबसे श्रेष्ठ गुरु है।

-पुरु

Monday 4 February 2013

परिस्थितियां


पेड़ से टूटा एक पत्ता,
अंधड़ के बीच 
कभी छूता आकाशी ऊंचाईयाँ,
तो कभी अचानक पाता 
पाताली गहराईयाँ,
अंधड़ की दिशा ही 
तय करती है उसकी स्थिति।

इसी तरह मनुष्य -
कभी पाता अपना लक्ष्य,
तो कभी भटक जाता अपना पथ, 
सही मायने में परिस्थितियां 
ही तय करती हैं-
मनु की स्थिति।

परिस्थितियां ही तो हैं 
जो बनाती  हैं
सबल मनु को,
देती हैं अनुभव और 
सिखाती हैं कला- 
जीवन जीने की। 


-पुरु