क्षितिज पर होता उदयाचल
निशि के पश्चात् देता
उल्लास, नव उर्जा- एक नयी शक्ति।
रजनीकालीन अंधकार का वृहत अंतराल
बीत गया है।
वृहत अंतरालिक रात्रि के अंधकार
को दूर करते हुए
सोखते हुए उस कालिमा को
फैलता हुआ उजाला देता एक नया आसमां
देता समृध्दी, उजेला-सक्षमता एवं कार्य-शक्ति का
पाकर उजेला यह आच्छादित
करता आह्लादित उस निम्न वर्ग को
देता पारावार खुशियाँ जीवन की
लगता है मानो अस्ताचल-उदयाचल
पहलू दो हैं जीवन के।
किसी अन्य निम्न वर्ग के जीवन में
होने वाला उदयाचल
आशाओं में बांध जाता है, जब उठती है
धुंध कोहरे की, धक् लेती है इस प्रकाश को
जो देगा उल्लास समृद्धि ,
करेगा आह्लादित और प्रवाहित करेगा
नयी उर्जा- एक नयी शक्ति।
धुंध तो है उच्च वर्ग, करती है मनमानी
उस हथौड़े के समान कसती है,
बेचारी कील को, जो कसना ही नहीं चाहती
अंधकारिता का यह बड़ा अंतराल
होता जाता है बड़ा है जैसे
कंगली में होता आटा गीला
प्रकाश भी बेबस धुंध के पास
नहीं पहुँच पाता किसी तरह धरा पर।
मध्याह्न उपरांत अंत में किसी तरह प्रकाश
पहुंचता है धरती पर,
क्षणिकता की यह विकटता
की समय देता है सूचना अस्ताचल की
हाय! बेबसी लाचारी निम्न वर्ग की
मानो क्षणिक समय के लिए
दिया गया खिलाना बच्चे से छीन लिया गया
और बच्चा रोता ही रह गया।
पुनः अन्धकार की वेला दग्ध करती है
चूस लेती है सारा सार उस आधार का
और बना देती है हाड़-निमित्त मात्र का ।
लगता है मानो अस्ताचल उदयाचल है ही नहीं ,
है तो सिर्फ और सिर्फ परिवेष्टित अंधकार है।
दृष्टांत दोनों हैं निम्न वर्ग के
फिर भी अंतर कितना मध्य में ,
आज अमीर समृध्दशाली है
और गरीब की झोली ही खाली है ।
-पुरु
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