करती उजेला इस धरा पर,
यह उजेला ही तो प्रेरक है
कर्मठ मनु के लिए।
इसी तरह ज्ञान की आभा
करती प्रेरित कर्मण्य-अकर्मण्य शिष्य को,
बाध्यता नहीं है गुरु-मन में और न ही है वैमनस्य
उसके लिए समभाव है कर्मण्य-अकर्मण्य।
सूर्य का प्रदीप्यमान होना कर्म है उसका,
पर वह भी होजाता है बेबस जब
होता है ग्रहण या ढक लेते हैं बादल बरसात में,
यही है कर्त्तव्यशून्यता सूर्य की।
गुरु-कर्म एक कर्त्तव्य है,
यही परिलक्षित होता है सामर्थ्य में
कि नहीं है कोई बाध्यता परिस्थितियों की,
अतएव सबसे श्रेष्ठ गुरु है।
-पुरु
No comments:
Post a Comment